Thursday, December 12, 2019

पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों के बारे में भारत का दावा कितना सही?

क्या पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश में ग़ैर-मुसलमान आबादी यानी अल्पसंख्यकों के बारे में भारत सरकार का दावा सही है?

भारत की संसद ने अपने तीन पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान से 31 दिसंबर 2014 तक भारत आए ग़ैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक समूहों को नागरिकता प्रदान करने वाला एक विवादास्पद विधेयक पारित किया है.

इसके तहत भारत में अवैध रूप से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई अगर यह साबित कर सकते हैं कि पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश से आए हैं तो वे नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं.

भारत सरकार का तर्क है कि इन तीन देशों में अल्पसंख्यकों की संख्या में लगातार कमी आ रही है और वे मज़हब के आधार पर उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं.

संसद में इसे भेदभावपूर्ण बताते हुए इसकी आलोचना की गई क्योंकि यह इन देशों के अन्य अल्पसंख्यक समूहों को नागरिकता नहीं प्रदान करेगा.

तो चलिए जानते हैं कि इन तीन पड़ोसी देशों में गैर मुस्लिम समुदाय किन परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं?

यह 1947 में विभाजन के बाद पाकिस्तान से ग़ैर-मुसलमानों के बड़े स्तर पर पलायन के बाद की स्थिति है.

अमित शाह ने 1951 में पाकिस्तान में बची अल्पसंख्यकों की आबादी को 23 फ़ीसदी बताया, वे कहते हैं कि दशकों के उत्पीड़न से इनकी आबादी कम होती गई है.

लेकिन अमित शाह के आंकड़ों को चुनौती देने की ज़रूरत है. ऐसा लगता है कि उन्होंने इसमें ग़लती से बांग्लादेश के पाकिस्तान से अलग होने से पहले के आंकड़ों को जोड़ दिया है.

जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक़ पाकिस्तान (बांग्लादेश बनने से पहले के पश्चिम पाकिस्तान) में हिंदुओं की आबादी 1951 में 1.5 से 2 फ़ीसदी थी और आज भी इसमें कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है.

जनगणना यह भी बताती है कि बांग्लादेश में ग़ैर-मुसलमानों की आबादी 1951 के 22% या 23% से गिरकर 2011 में लगभग 8% रह गई है.

लिहाजा, बांग्लादेश में ग़ैर-मुस्लिनों की आबादी में महत्वपूर्ण गिरावट हुई है जबकि पाकिस्तान में इनकी स्थिति में बहुत कम बदलाव हुआ है.

पाकिस्तान और बांग्लादेश में ईसाई, बौद्ध, सिख और पारसी जैसे अन्य ग़ैर-मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यक भी हैं.

1970 के दशक में पाकिस्तान ने अहमदिया लोगों को ग़ैर-मुस्लिम घोषित कर दिया गया था. इसके साथ ही 40 लाख की आबादी वाला यह समूह देश का सबसे बड़ा ग़ैर-मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यक बन गया.

अफ़ग़ानिस्तान में ग़ैर-मुस्लिम समूहों में हिंदू, सिख, बहाई और ईसाई हैं. ये वहां की आबादी के 0.3 फ़ीसदी से भी कम हैं.

2018 में वहां सिर्फ़ 700 सिख और हिंदू बचे थे. अमरीकी विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक़ वहां चल रहे संघर्ष की वजह से वे भी पलायन कर गए हैं.

भारत सरकार के नागरिकता विधेयक में कहा गया हैः पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश के संविधान में राज्य के धर्म को इस्लाम माना गया है. इसकी वजह से, हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को उन देशों में धर्म के आधार पर उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है.

यह सच है कि पाकिस्तान में राज्य के धर्म को इस्लाम माना गया है. अफ़ग़ानिस्तान भी एक इस्लामिक देश है.

लेकिन बांग्लादेश में स्थिति अधिक जटिल है. यह देश 1971 में धर्मनिरपेक्ष संविधान के साथ अस्तित्व में आया, लेकिन 1988 में इस्लाम को आधिकारिक तौर पर देश का धर्म बना दिया गया.

बांग्लादेश में इसे पलटने की एक लंबी क़ानूनी लड़ाई चली जो 2016 में शीर्ष अदालत के उस फ़ैसले के साथ ख़त्म हुई जिसमें निर्णय दिया गया कि 'इस्लाम' देश का आधिकारिक धर्म बना रहना चाहिए.

हालांकि, इन सभी देशों में संवैधानिक प्रावधान है कि ग़ैर-मुस्लिम आबादी अपनी धार्मिक प्रथाओं का पालन करने के लिए स्वतंत्र हैं.

पाकिस्तान और बांग्लादेश, दोनों ही देशों में हिंदू समुदाय के लोग चीफ़ जस्टिस तक के पद पर आसीन हुए हैं. लेकिन हिंदुओं की बड़ी आबादी के घरों और बिजनेस को निशाना बनाया गया है.

कुछ मामलों में उन्हें इस तरह निशाना बनाया गया कि वे वहां से चले जाएं और उनकी ज़मीन और संपत्ति को हड़प लिया गया. हिंदुओं को धार्मिक चरमपंथियों ने भी निशाना बनाया है.

बांग्लादेश सरकार ने अल्पसंख्यकों को टारगेट किए जाने के भारत के दावे का खंडन किया है. विदेश मंत्री अब्दुल मोनीम ने बीबीसी को बताया, "हमारे पास देश में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के उदाहरण नहीं हैं."

संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक़ 2016-19 के बीच भारत में शरणार्थियों की संख्या में 17 फ़ीसदी का इजाफा हुआ है.

जबकि इस साल अगस्त तक संयुक्त राष्ट्र में दर्ज शरणार्थियों की सबसे बड़ी संख्या तिब्बत और श्रीलंका से है.

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